श्री महाकालेश्वर भगवान की राजसी सवारी में जनजातीय एवं लोक नृत्य कलाकारों के दल सहभागिता करेगे
-: Mahakal Sawari 2025 :-
उज्जैन| मध्यप्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव की मंशानुरूप बाबा श्री महाकालेश्वर की सवारी को भव्य स्वरुप देने के लिए 04 जनजातीय कलाकारों के दल श्री महाकालेश्वर भगवान की 18 अगस्त 2025 को भाद्रपद माह की दूसरी व राजसी सवारी में सहभागिता करेगा।
जिसमे श्री लामूलाल धुर्वे अनूपपुर के नेतृत्व में ढुलिया जनजातीय गुदुमबाजा नृत्य, भुवनेश्वर से श्री अभिजीत दास नेतृत्व में श्रृंगारी लोक नृत्य, श्री सुमित शर्मा एवं साथी हरदा से डण्डा लोक नृत्य एवं श्री साधूराम धुर्वे बालाघाट के नेतृत्व में बैगा जनजातीय करमा नृत्य की प्रस्तुतियां सम्मिलित है।
यह सभी दल श्री महाकालेश्वर भगवान की राजसी सवारी के साथ अपनी प्रस्तुति देते हुए चलेगे | सभी जनजातीय दल संस्कृति विभाग भोपाल, जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद व त्रिवेणी कला एवं पुरातत्वव संग्रहालय के माध्यम से भगवान श्री महाकालेश्वर जी की राजसी सवारी सहभागिता करेगे |
दलों का परिचय
1. धुलिया जनजातिय
यह पारम्परिक गुदुम बानावाद है जो कि पुरूष वर्ग ही नृत्य करते है यह बाद जैसा कि मांगलिक अवसर पर किया जाता जन्म से लेकर मरण तक धुलिया धुलिया जनजातीय लोक नृत्य हर तीज त्यौहार, शादी-विवाह के अवसर पर भारत भारत मे यह गुदुम बाजा बजाया जाता है ।
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2. ढेमसा (गोरी श्रृंगार लोक नृत्य)
भारत वर्ष में अनेक प्रकार के जन जाती के लोग बस बास करते हैं। और हमारे भारत वर्ष में नाना प्रकार की लोक नृत्य देखने को ममलता है। इसमें से ओडिशा प्रदेश की दक्षिण प्रांत में रहने वाले आदिवासी लोगों का पारम्परिक लोक नृत्य है “ढेमसा”। ये लोक नृत्य ढेमसा आदिवासी लोगों के मुख्यत: मनोरंजन के हेतु है ।
दिनभर खेती बाडी का काम धाम समाप्त करने के बाद जब अपने अपने घर वापस आते हैं, तब अपने थकान को भुलाने के बाद भेद भाव भुलाकर एक साथ लोकसंगीत गाकर गांव के बीचोंबीच नृत्य करते हैं। इसमें ढोल, ननसान, तासा, महूरी और झांज बजता है। जनजाती के अनुसार ढेमसा अनेक प्रकार के होते हैं जैसे कक परजा ढेमसा, गादबा ढेमसा, आदिवासी ढेमशा, रींजोड़ी ढेमसा आदि | इनमें से “भत्रा ढेमसा ” आदिवासी लोगों का मुख्य ढेमसा माना जाता है।
3. डंडा लोकनृत्य
यह नृत्य वर्षाकाल में ग्रामीण कृषकों तथा उनके आदिवासी मजदूरों द्वारा एक साथ मिलकर किया जाता है। फसल बुआई के उपरांत कृषक और मजदूर वर्ग खुश रहते हैं और रात रात भर चटक बादली रात में इस नृत्य को किया जाता है।
वर्षाकाल के प्रमुख लोकपर्वों में इस नृत्य को विशेष रूप से किया जाता है, यह हरियाली अमावस्या (जिरोती) से लेकर कुशोत्पाटिनी अमावस्या (पोला अमावस्या) तक किया जाता है।इसके साथ होनेवाले गायन में हास्य, व्यंग, भक्ति तथा श्रंगार की प्रधानता है।
वादक कमर में बड़े बड़े ढोलकी और नर्तकगण पैरों में घुंघरू बांधकर नृत्य करते हैं। इस नृत्य में ढोलकी,टिमकी, झांझ, डंडा ,तथा नगाड़ा वाद्ययंत्र का उपयोग किया जाता है। इसमें गाए जाने वाले दोहा स्वरूप गीतों को फुहाड़ा बोलते हैं। यह परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। और अब इस नृत्य को करनेवाली यह अंतिम पीढ़ी है। सुमित शर्मा ने इस पुरातन परंपरा को जीवंत बनाए रखा है एवं देश के कई मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां दे चुके हैं।
4. बैगा जनजातीय नृत्य
बैगा करमा जनजाति अनुठी संस्कृति के लिए मध्यप्रदेश में जानी जाती हैं बैगा घने जंगलों के बीच निवास करते बैगा जनजाति दशहरा चाँद की नई फसल भूरठा, चेच भाजी, सावा, कोदो, कुटकी लह-लहाती सढिया धान, भादो चिगा धान देखकर खुशीयों में झुम उठते हैं । स्वयं गीत गाते है और घूम-घूम कर नाचते हैं।
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