जब ज्ञानवापी युद्ध में 40 हज़ार नागा साधुओ ने मुगल सैनिको को दिखाया असली तांडव
-: GYANVAPI BATTLE 1664 :-
एक ऐसी रात जब काशी की गलियों में खून की नदियां बही थी और हवा में सिर्फ हर हर महादेव का नारा गूंज रहा था। वो रात थी 1664 की जब औरंगजेब की विशाल मुगल सेना ने काशी विश्वनाथ मंदिर को मिटाने की साजिश रची। लेकिन सामने खड़े थे नागा साधु। नंगे बदन भस्म रमाए त्रिशूलधारी योद्धा जिनकी रगों में सनातन धर्म की आग धदधक रही थी। फिर क्या हर हर महादेव के नारों की गूंज ने युद्ध भूमि में तांडव का खेल रचा। अपनी नंगी तलवारों और सिंदूर से सने त्रिशूलों से हर नागा साधु मुस्लिम आक्रमणकारियों की गर्दनों को धड़ से अलग कर रहे थे। युद्धभूमि रक्त के रंग में रमी थी।
मुगल सैनिक भाग रहे थे क्योंकि उन्हें युद्ध भूमि में नजर आ रहे थे महादेव के वह गढ़ कहे जाने वाले नागा साधु। हमारे इतिहास की किताबों में आपको इस वीर गाथा का वर्णन नहीं मिलेगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन नागा साधुओं ने ना सिर्फ काशी विश्वनाथ मंदिर की रक्षा की बल्कि औरंगजेब जैसे क्रूर शासक को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
ज्ञानवापी युद्ध की यह कहानी इतनी दमदार है कि आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे और सीने में सनातन धर्म का गर्व जाग उठेगा। आज मैं आपको बताने वाला हूं वो भोली बिसरी गाथा जहां नागा साधुओं ने अपनी जान की बाजी लगाकर काशी विश्वनाथ मंदिर को बचाया। यह कहानी है वीरता की, बलिदान की और सनातन की उस शक्ति की जो कभी हार नहीं मानती।
काशी विश्वनाथ मंदिर, सनातन धर्म का वो तीर्थ स्थल जिसे भगवान शिव ने अपनी प्रिय नगरी कहा था। यह सिर्फ एक मंदिर नहीं बल्कि भारत की आध्यात्मिक आत्मा का प्रतीक है। लेकिन 1664 में यह पवित्र स्थल औरंगजेब के निशाने पर था। औरंगजेब मुगलों का वो जालिम शासक जिसने हिंदुओं पर जजिया थोपा, मंदिरों को तोड़ा और सनातन संस्कृति को मिटाने की कसम खाई। उसने काशी को निशाना बनाया। लेकिन उसे यह नहीं पता था कि काशी की रक्षा के लिए खड़े हैं नागा साधु।
वो योद्धा जिन्हें आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन की ढाल बनाया था। कहते हैं आठवीं सदी में जब आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म को पुनर्जन्म दिया और चार धाम द्वारका, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम और बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए। तब शंकराचार्य जानते थे कि आध्यात्मिक शक्ति अकेले काफी नहीं है। विदेशी आक्रमणकारियों से धर्म की रक्षा केलिए शस्त्र और शास्त्र दोनों की आवश्यकता होगी। इसीलिए उन्होंने नागा साधुओं की परंपरा शुरू की। यानी ऐसे सन्यासी जो ध्यान में लीन रहते हैं लेकिन युद्ध में महाकाल बन जाते हैं।
इसके लिए महानिवाणी, जूना और आनंद अखाड़ा जैसे संगठों ने इन साधुओं को त्रिशूल, तलवार और भाला चलाने की कला सिखाई गई। साथ ही योग और तंत्र की साधना भी इन्हें दी गई। नागा साधु सिर्फ सन्यासी नहीं बल्कि सनातन धर्म के रक्षक थे। जिन्हें गुरु शंकराचार्य ने भविष्य के संकटों के लिए तैयार किया हुआ था। वहीं दूसरी तरफ सन 1658 में औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कैद कर गद्दी को हथिया लिया। उसका शासन शरिया पर आधारित था।
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उस जालिम शासक ने जजिया कर लागू किया। हिंदुओं को कुचलकर मंदिरों का विध्वंस किया और हिंदुओं का जबरन धर्मांतरण उसकी नीति थी। उसने मथुरा, अयोध्या और सैकड़ों मंदिरों को तोड़ने के बाद काशी विश्वनाथ मंदिर को निशाना बनाया। जी हां, ज्ञानवापी वही जो 12 ज्योतिर्लिंगों में से सबसे पवित्र है। उसके लिए औरंगजेब ने 1664 में एक गुप्त योजना बनाई। उसने अपने फौजदार को आदेश दिया कि मंदिर की गतिविधियों पर नजर रखी जाए। फिर उसने सन 1664 की शुरुआत में एक विशेष मुगल दस्ता काशी की तरफ भेजा। जिसका नेतृत्व एक वरिष्ठ फौजकार कर रहा था।
इस दस्ते में 500 सैनिक थे। उनका मकसद था मंदिर के गर्भ गृह तक पहुंचना और उसे अपवित्र करना। लेकिन जैसे ही वे मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचे, 25 नागा साधुओं ने त्रिशूल और तलवारों के साथ उनका रास्ता रोक लिया। महानिरवाणी और आनंद अखाड़े के साधुओं ने मंदिर को किले में बदल दिया।
जब एक मुगल सैनिक ने पुजारी को धक्का दिया, तो साधुओं ने तुरंत हमला बोल दिया। तीन मुगल सैनिक घायल हुए और कुछ ही मिनटों में युद्ध शुरू हो गया। बाजार बंद हो गए। लोग घरों में छिप गए और काशी में डर का माहौल बन गया। लेकिन नागा साधुओं ने हार नहीं मानी। युद्ध का विशाल क्षेत्र हवा में धूल और भस्म उड़ रही थी।
दहाड़ मारते और हर हर महादेव का जयकारा लगाते हुए नागा साधु मुगल सैनिकों को छिनभिन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। मुगलों की सेना चीखती हुई भाग रही थी। किसी मुगल सैनिक का धड़ नागा साधुओं के त्रिशूल में गड़ा था तो किसी मुगल सैनिक का लहू नागा साधुओं का अभिषेक कररहा था। ऐसा लग रहा था मानो साक्षात महादेव के गण युद्धभूमि में तांडव कर मुगल सैनिकों को राक्षस समझकर उनका विनाश कर रहे हैं। पहली बार में ही नागा साधुओं ने मुगलों को खदेड़ दिया। यह पहला टकराव था जिसने औरंगजेब को दिखाया कि काशी विश्वनाथ मंदिर को जीतना बिल्कुल आसान नहीं है।
पहले हमले के बाद नागा साधुओं ने अपनी रणनीति को और मजबूत किया। महानिवाणी, चूना और आनंद अखाड़ों ने आपसी गुठ बनाया। उन्होंने मंदिर की सुरक्षा के लिए तीन स्तर की रणनीति बनाई। मुख्य द्वार की रक्षा के लिए वरिष्ठ साधुओं को तैनात किया गया जो रूप, रंग और ढंग से महाकाल का रौद्र रूप लेते थे। गंगा घाट की निगरानी की गई और मंदिर के पीछे से हमले को रोकने के लिए कई सारे साधुओं को तैनात किया गया।
गलियों और छतों पर चौकसी लगाई गई ताकि ऊंचाई से हमले को नाकाम करने के लिए निगरानी की जा सके और इस हमले से बचाव में शैव समुदाय भी आगे आया और ब्राह्मण समाज और वैश्य संगठनों ने शंख ढोल और आवास के सिग्नल सिस्टम का सुझाव दिया जिसे तुरंत ही लागू कर दिया गया। स्थानीय व्यापारियों, कारीगरों और ब्राह्मणों ने नागा साधुओं को रसद, सूचना और चिकित्सा की सहायता दी। यह सामाजिक एकता और साधुओं की रणनीति थी, जिसने मंदिर को अभेद्य किला बना दिया।
अब अपने पहले हमले की नाकामी से गुस्साए औरंगजेब ने इस बार 1500 सैनिकों का एक बड़ा दस्ता भेजा। इस बार उन्होंने रात में हमले की योजना बनाई ताकि नागा साधु चौकन्ने ना रह सके। लेकिन नागा साधुओं की खुफ़िया व्यवस्था ने इसे भांप लिया। सुबह 5:00 बजे 800 सैनिक मुख्य द्वार पर आए। लेकिन साधुओं ने त्रिशूल और भाले जमाकर उनका रास्ता रोक लिया। पीछे से आए 500 सैनिकों को आनंद अखाड़े के साधुओं ने छत से गर्म रेत और त्रिशूलों से खदेड़ दिया।
कई सैनिक घायल हो गए और गंगा नदी में कूद गए। 4 घंटे के इस युद्ध में मुगल सेना पूरी तरह से थक कर चूर हो गई, और इसके बाद फौजदार ने सभी को पीछे हटने का आदेश दिया। लेकिन इस हमले के दौरान तीसरे दस्ते का एक छोटा सा समूह उत्तर की दीवार बांधकर गर्भगृह तक पहुंच गया। उनका मकसद था शिवलिंग को तोड़ना। लेकिन आनंद अखाड़े के 200 नागा साधुओं ने शिवलिंग के चारों ओर मानव श्रंखला बना दी। जब सैनिकों ने शाही आदेश की बात कही तो साधुओं ने जवाबदिया, यहां सिर्फ महादेव का राज चलता है।
जिसके बाद छोटे गलियारों में त्रिशूल और तलवारों का भयंकर युद्ध हुआ। 19 नागा साधुओं ने गर्भ गृह में शिवलिंग के आगे बचाव के लिए खड़े हो गए। तीन साधुओं ने 17 से भी ज्यादा मुगल अधिकारियों को मार गिराया। जबकि बाकी ने शिवलिंग के सामने अपनी पीठ टिका कर बलिदान दे दिया। खून से सने गलियारों में शंखों और मंत्रों की गूंज ने सैनिकों को मानसिक रूप से तोड़ दिया। लेकिन शिवलिंग अछूता रहा। धीरे-धीरे बाकी नागा साधु भी कर गृह में प्रवेश करने लगे।
जिसके बाद मुगल सेना को भागना पड़ा। फौजदार ने औरंगजेब को रिपोर्ट भेजी। काशी मंदिर कोई इमारत नहीं बल्कि एक संगठित सामाजिक किला है। औरंगजेब ने इस हार को सार्वजनिक नहीं किया। लेकिन उसने अगले 2 सालों तक काशी पर सीधा हमला नहीं किया। इसके बजाय उसने जजिया और प्रशासनिक दबाव बढ़ाया। महानिवाणी अखाड़ा इसे ज्ञानवापी संग्राम कहता है। विलियम पिंच की किताब वॉरियर एथेटिक्स एंड इंडियन एंपायर्स और युगनाथ सरकार की अ हिस्ट्री ऑफ दशनामी नागा सन्यासीज में इस युद्ध का जिक्र है। यह युद्ध सिर्फ मंदिर की रक्षा नहीं बल्कि सनातन की पहचान की जीत है।
वैसे 1664 का युद्ध नागा साधुओं की एकमात्र गाथा नहीं थी। 1756 मथुरा में 5000 नागा साधुओं ने अहमद शाह अब्दाली की सेना को मथुरा से खदेड़ा जिसमें 2000 साधुओं ने बलिदान दिया और 8000 अब्दाली सैनिक मारे गए। वहीं 1761 पानीपत युद्ध में महंत पुष्पेंद्र गिरी के नेतृत्व में 10,000 नागा साधुओं ने अफगानों को बुरी तरह से हराया।
वहीं दोबारा हुए हमले में प्रयागराज के महंत राजेंद्र गिरी के नेतृत्व में 1200 साधुओं ने अफगान सेना को फिर से भगाया। नागा साधुओं ने ना सिर्फ मुगलों बल्कि अफगानों और अंग्रेजों के खिलाफ भी सनातन की रक्षा की। आज नागा साधुओं को अक्सर भस्म रमे भांग पीने वाले कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन्हीं नागा साधुओं ने अपनी जान देकर हमारे मंदिरों और संस्कृति को बचाया था। उनकी तपस्या, शस्त्र विद्या और बलिदान को भुला दिया गया। क्या यह उचित है कि हम अपनी विरासत को भूल जाएं? मैं तो यह मानता हूं कि नागा साधुओं की यह वीरगाथा साबित करती है कि नागा साधु सिर्फ सन्यासी नहीं बल्कि सनातन के महान योद्धा है। ज्ञानवापीयुद्ध की ये कहानी सिर्फ एक मंदिर की रक्षा नहीं बल्कि सनातन धर्म की उस अटल शक्ति को बयां करती है जिसने औरंगजेब जैसे तानाशाहों को भी झुकने पर मजबूर कर दिया।
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