मानव जीवन में तीन गुण महत्वपूर्ण होते हैं।
-: Human Life :-
जगत में तीन गुण हैं- सत्त्व, रज एवं तम। प्रत्येक व्यक्ति में ये गुण रहते हैं; हाँ, किसीमें सत्त्वकी प्रधानता रहती है, किसीमें रजकी और किसीमें तमकी। इसी प्रकार एक व्यक्ति के भाव भी सदा एक-से नहीं रहते। उसमें भी समय-समय पर कभी किसी गुणका प्राधान्य हो जाता है और कभी किसी गुणका।
जब सत्त्वत्रका प्राधान्य रहता है, उस समय व्यक्ति की चेष्टाएँ शान्त, निर्मल, पवित्र रहती हैं; जिस समय रजोगुण का प्राधान्य रहता है, वही व्यक्ति उस समय चञ्चल एवं उम्र होता है तथा जिस समय तमोगुण का प्राधान्य रहता है, उस समय वह प्रमादी, आलसी एवं पाप-परायण रहता है। गुणों के इस तारतम्य को विचार कर हमें अपनी क्रियाओं पर नियन्त्रण करना चाहिये। जिस समय किसी विषय पर परस्पर विवाद होने लगे, उस समय हमें शान्त रहना चाहिये। अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए भी उसपर अड़ना नहीं चाहिये।
संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं और प्रत्येक अपने मत को सही समझता है; ऐसी स्थिति में अपने मत पर ही दृढ़ रहकर अपनी बात की ही पुष्टि करते नहीं रहना चाहिए। यदि कोई पूछे तो आप उसे प्रेम के साथ जो बात जचे, वह कहिए; पर यदि वह उसे स्वीकार न करे तो जिद्द मत कीजिए कि वह आपकी बात मान ही ले, उस प्रसंग को वहीं समाप्त कर देना चाहिए, आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए।
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आगे बढ़ने से वृत्तियों में उत्तेजना आ सकती है; उत्तेजना आने से व्यवहार एवं साधना दोनों की दृष्टि से हानि होती है; उसका प्रभाव भी दूसरे व्यक्तियों पर अच्छा नहीं पड़ता। अत एव अपने आदर्श को सबसे ऊँचा रखना चाहिये। शुकदेव, जनक आदि आदर्श पुरुवों को आदर्श मान कर हमें उनकी तरह बनने का प्रयत्न करना चाहिये। भगवान् रामको अपना आदर्श बनाना चाहिये ।
भगवान् राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ हैं, अत एव हम उनको भी आदर्श मानकर चल सकते हैं। मेरे विचारसे तो जो गृहस्थ हैं, उन्हें भगवान् राम को ही अपना आदर्श बनाना चाहिये तथा स्त्रियों को भगवती सीता को अपना आदर्श बनाकर चलना चाहिये। चलना, बोलना, बैठना, सोना आदि व्यवहार भगवान् राम के जीवन को समक्ष रखकर करने चाहिये। माता-पिता, गुरु, भाई, मित्र, सखा, सहचर-दास आदि के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, यह भगवान् राम के जीवनसे सीखना चाहिये।
उदाहरण के लिये जो हमसे बड़े हैं, पर वे कैसा व्यवहार करते हैं, राम के जीवन में देखें-हमारी सेवा में हैं, तो उनके साथ चाहिये इसको हम भगवान समझें। राम युवराज हैं और सुमन्त्र उनकी सेवा में हैं; पर सुमन्त्र अवस्था में बड़े हैं, अतः राम उनका पिता के समान आदर करते हैं। राम के मन में यह बात नहीं आती कि ‘ये हमारे सेवक हैं, हम इन्हें पिता के समान आदर क्यों दें।’ इस आदर्श को समक्ष रखकर हमें चाहिये कि जो हमारे सेवक होते हुए भी आयु में हमसे बड़े हैं, हम उनके प्रति आदर भाव रखें, छोटेपन का भाव नहीं।
राजा दशरथ राम को बुलाना चाहते हैं। सुमन्त्र राम के पास जाकर कहते हैं, ‘पिताजी आपको देखना चाहते हैं।’ उन्होंने पिता की बात को ‘आज्ञा’ के रूप में नहीं कहा, केवल पिता की इच्छा व्यक्त कर दी। राम भी आदर्श पितृ भक्त हैं; ‘पिताजी मुझे देखना चाहते हैं।’ यह सुनते ही वे नंगे पैर ही पिता के पास दौड़े जाते हैं।
भगवान् की तरह ही हमें भी पिता की बातका आदर करना चाहिये, जीवन में जितने भी सम्बन्ध एवं व्यवहार हो सकते हैं, वे सभी भगवान् राम के जीवन में उपलब्ध होते हैं। हम लोगों को चाहिये कि हम प्रत्येक व्यवहार भगवान् राम के व्यवहारको सामने रखकर करें। यदि हम यह करने में सफल हुए तो हमारा मानव-जीवन सफल हो जायगा ।
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