भारत के गौरवशाली अतीत की कहानी

-: History Of Samrat Ashok :-

साल था 1837 इस साल एक ऐसी घटना हुई जिसने भारत के इतिहास को पलट कर रख दिया यह वो घटना थी जिसकी बदौलत भारत के लोग अंग्रेजों को कह सकते थे कि भारत का इतिहास अंग्रेजी इतिहास से भी काफी पुराना है भारत देश में भी बहुत बड़े-बड़े साम्राज्य हुए जो रोम जैसे देशों को टक्कर दे सकते थे साल 1837 तक भारत के लोगों को अशोक की महानता के बारे में नहीं पता था।

उन्हें नहीं पता था कि मुगल बादशाहों से भी पहले इस देश में ऐसा कोई राजा हुआ जिसने भारत के इतने बड़े हिस्से पर कब्जा किया हो बौद्ध और जैन ग्रंथों में इस राजा की कहानी तो मिलती थी लेकिन उसे सिर्फ एक काल्पनिक कहानी ही माना जाता था क्योंकि ऐतिहासिक तौर पर इनके सबूत नहीं मिलते थे अफगानिस्तान से लेकर साउथ इंडिया में जगह-जगह एक तरह के पत्थर मिले थे जिस पर कुछ लिखा हुआ था।

लेकिन क्या लिखा था किसने लिखा था और क्या इन सबका आपस में कोई संबंध भी था यह सब उस दौर में कोई नहीं जानता था लेकिन 1837 में एक अंग्रेज ने खोज निकाला वो तरीका जिससे हम पढ़ पाए इतिहास के सबसे महान साम्राज्य में से एक की कहानी तब हमें पता चली सम्राट अशोक की कहानी भारत का वह साम्राज्य जिसके बारे में 1837 से पहले तक कोई भी नहीं जानता था।

एक गुम साम्राज्य जिसके सबूत थे लेकिन उन्हें कोई पहचान नहीं पा रहा था 1837 में इंडिया के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने पहली बार पढ़ी थी ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि कभी बौद्ध और जैन ग्रंथों में में माने जाने वाले मिथ कैरेक्टर को तब एक ऐतिहासिक राजा की स्वीकृति मिली जब जेम्स प्रिंसेप ने उनके लिखे अभिलेखों को पढ़ने का तरीका ढूंढ लिया जो अफगानिस्तान से लेकर कर्नाटक तक फैले हुए थे।

लेकिन जेम्स प्रिंसेप की ये कहानी भी कम रोचक नहीं है कि उन्होंने कैसे यह तरीका खोजा वास्तव में प्रिंसेप कभी यह काम करना ही नहीं चाहते थे एक मजबूरी थी जो उन्हें भारत खींच कर लाई थी और इसी मजबूरी ने उन्हें उस सफर पर भेजा जहां उनका नाम अमर हो गया एक बेहतरीन ट्रांसलेटर के तौर पर आज बेहद कम लोग जेम्स प्रिंसेप को जानते हैं और जो जानते भी हैं।

उन्हें बस इतना पता है कि उन्होंने खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि को पढ़ा लेकिन भारत के इतिहास में जेम्स प्रिंसेप का योगदान इससे भी काफी बड़ा है आज हम जाने गे की कैसे जेम्स प्रिंसेप ने ढूंढा था ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि को पढ़ने का तरीका और इस काम में उन्हें क्या-क्या दिक्कतें आई थी।

साल 1799 में जब जेम्स प्रिंसेप का जन्म हुआ तो उनका परिवार गरीबी को बहुत दूर छोड़ आया था उनके पिता ने भारत आकर खूब दौलत कमाई थी बाद में वह ब्रिटेन में सांसद हो गए थे यह वह दौर था जब अंग्रेजों के पास भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी बहुत कम थी जो उनके सामने था वह बस मुस्लिम और मुगल एंपायर था।

हालांकि अंग्रेजों ने भारत के इतिहास में झांकने की बहुत कोशिशें की उन्हें भारत के प्राचीन इतिहास में काफी दिलचस्पी थी क्योंकि उन्हें काफी चीजें मिला करती थी जिन्हें ना तो वह पहचान पा रहे थे और ना ही भारत के लोग इन चीजों के बारे में जानते थे 1757 में होती है प्लासी की लड़ाई इसके बाद जब ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में विस्तार करना शुरू किया तो कई ब्रिटिश लेखक, यात्री, विद्वानों, व्यापारियों और अधिकारियों ने भारत के प्राचीन अतीत को फिर से खोजने के लिए अपनी कोशिशें शुरू की

इसकी चर्चा सिर्फ भारत में नहीं होती थी बल्कि इंग्लैंड में भी होती थी इसी माहौल में पल बढ़ रहे थे जेम्स प्रिंसेप वैसे जेम्स प्रिंसेप को शिलालेख पढ़ने का या आर्कोलॉजी का शौक नहीं था बल्कि उन्हें इंटरेस्ट था आर्किटेक्चर में लेकिन शायद किस्मत को कुछ और मंजूर था बचपन में ही उन्हें एक आंख में इंफेक्शन हो गया इस इंफेक्शन के चलते उनकी एक आंख लगभग खराब हो गई।

इसके चलते जो काम वो करना चाहते थे वो अब नहीं हो सकता था जब तक उनकी आंख ठीक हुई तब तक उनकी उम्र निकल गई थी जेम्स प्रिंसेप के सामने अपने सपने को पूरा करने का और कोई रास्ता नहीं बचा था उन्हें समझ भी नहीं आ रहा था कि अब वह आखिर क्या करें इसी टाइम पर उनके पिता जॉन प्रिंसेप काम आए उनके पिता की ईस्ट इंडिया कंपनी में अच्छी खासी जान पहचान थी।

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इसलिए उन्होंने जेम्स के लिए एक नौकरी का जुगाड़ कर दिया सितंबर 15 साल 1819 को जेम्स प्रिंसेप अपने भाइयों के साथ कलकाता आए यहां उन्हें कलकाता की टकसाल में सिक्कों की परख करने का काम मिला कोलकाता टकसाल में प्रिंसेप मिले अपने बेहद दिलचस्प सीनियर ऑफिसर हॉरेस हेमन विल्सन से विल्सन उस टाइम पर बहुत ही ज्यादा रिनाउंड संस्कृत विद्वान थे।

उनकी आयुर्वेद में काफी रुचि थी और वह ऋग्वेद, विष्णु पुराण और कालिदास के मेघदूत का इंग्लिश में ट्रांसलेशन करने वाले पहले व्यक्ति थे विल्सन के साथ रहते हुए प्रिंसेप ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में खूब दिलचस्पी डेवलप हुई यह दिलचस्पी तब और गहरी हो गई जब प्रिंसेप को 1820 में बनारस मिंट में ट्रांसफर कर दिया गया।

यहां पर व अगले 10 साल तक रहे और बहुत मेहनत से काम किया बनारस की बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक इमारतों को देखकर प्रिंसेप को अपने बचपन के सपने की याद आई कि वो भी एक शानदार आर्किटेक्ट बनना चाहते थे बनारस ने उन्हें अपने सपने को पूरा करने का मौका दिया इसलिए उन्होंने अपनी ड्यूटी के बाद आर्किटेक्चर का काम करना शुरू कर दिया।

उन्होंने यहां पर कई मंदिरों के स्थापत्य की पढ़ाई की और उसके कई इलस्ट्रेशंस बनाए एग्जांपल के लिए उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर का भी नक्शा बनाया था जिसे पिछले साल भारत सरकार ने मंदिर के वास्तु को समझने के लिए भारत मंगाया था खैर जेम्स प्रिंसेप ने बनारस में मंदिरों की जो स्टडी की उसकी एक सीरीज बनाई ये सीरीज 1830 और 1834 के बीच लंदन में प्रकाशित हुई जिसका टाइटल था।

बनारस इलस्ट्रेटेड इन अ सीरीज ऑफ ड्राइंग्स इस दौरान टकसाल वाला उनका काम छूटा नहीं था उन्होंने फिर टकसाल में सिक्कों को डिजाइन करने में एक चर्च और बंगाल में नेहरों की एक श्रंखला भी डिजाइन की थी फिर इसी दौरान उनकी दिलचस्पी पैदा होती है सिक्कों में उन्होंने बैक्टीरिया और कुषाण के सिक्कों के साथ-साथ भारतीय श्रंखला के सिक्कों की व्याख्या की जिसमें गुप्त काल के पंचमार्क कॉइन भी शामिल थे।

वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सुझाव दिया कि भारतीय सिक्का निर्माण में तीन फेजेस थे पंचमार्क डाइस ट्रक और कास्ट सिक्के ये सिक्कों के अलग-अलग प्रकार होते हैं इस दौर में कई सिक्के अंग्रेजों को मिलते थे उनके बॉस विल्सन पंजाब और राजस्थान में मिलने वाले इन सिक्कों की भाषा नहीं पढ़ पा रहे थे और इस वजह से से बहुत परेशान थे।

प्रिंसेप ने फिर इस दौरान इन सिक्कों की लिस्टिंग शुरू की और इसके साथ ही उनके अंदर कौत हल पैदा हुआ उन शिलालेखों के बारे में जानने के लिए जिसमें कुछ अजीब सी भाषा लिखी हुई थी लेकिन भारतीय या फिर अंग्रेज कोई भी उसे पढ़ नहीं पा रहा था हैरानी की बात यह थी कि ये स्तंभ सिर्फ पंजाब या राजस्थान में नहीं मिले थे।1833 ईसवी में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला में भी ऐसे ही लेख मिले और ठीक ऐसे ही अभिलेख इलाहाबाद के किले में भी पाए गए प्रिंसेप ने इस बारे में अपनी डायरी में यह लिखा था।

मैं इलाहाबाद में पढ़े इस बेहद दिलचस्प स्तंभ को जो तेजी से खराब हो रहा था इसके संरक्षण के बिना आगे बढ़ पाना संभव नहीं था एक बार जब यह अलग-अलग पत्थरों पर लगभग एक जैसा लिखा हुआ टेक्स्ट मिल गया तो प्रिंसेप ने इसे डिकोड करने का काम शुरू किया संस्कृत के एक एक्सपर्ट की हेल्प लेकर वह इलाहाबाद के शिलालेख के एक छोटे से हिस्से को पढ़ने में कामयाब हो गए इस अभिलेख में लिखा हुआ था समुद्रगुप्त इस अभिलेख में समुद्रगुप्त के नाम के किसी राजा की कई विजयों का उल्लेख था।

लेकिन अभी भी वह कई शब्द ऐसे थे जिनको पढ़ नहीं पा रहे थे उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह आखिर गलती कहां पर कर रहे हैं समुद्रगुप्त के दौर में इस्तेमाल होने वाली ब्राह्मी लिपि को उन्होंने समझ लिया था लेकिन अशोकन ब्रामणी को अभी भी डिकोड करना बाकी था हालांकि प्रिंसेप ने हार माने बिना इस काम को लगातार जारी रखा इस बीच एक और स्तंभ मिलता है बिहार के बेतिया जिले में प्रिंसेप ने इस स्तंभ को दिल्ली और इलाहाबाद के शिलालेखों के साथ रखा और सुराग के लिए इसका विस्तार से अध्ययन किया।

फिर आखिरकार वह कामयाब भी हुए जिसके बारे में उन्होंने लिखा तीनों शिलालेखों में अन्य समान शब्द खोजने के उद्देश्य से सावधानी पूर्वक तुलना करने पर मैं एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज पर पहुंचा व एक खोज थी कि तीनों शिलालेख एक जैसे थे अब दोस्तों यह पहली कड़ी थी एक सुराग था लेकिन अभी भी उन्हें पता नहीं था कि जो लिखा है उसका आखिर मतलब क्या है फिर जेम्स 4 सालों तक इस प्रोजेक्ट पर लगे रहे उन्होंने दिन रात इसी काम में बिता दिए इस हद तक उनके ऊपर जुनून सवार हो गया कि उन्हें सिर दर्द की समस्या हो गई थी।

दिन में वो टकसाल का काम करते और रात में शिलालेख और सिक्कों को पढ़ने में गुजार देते थे इस दौरान उन्होंने इन सिक्कों की स्टडी करते हुए बहुत बड़ा नेटवर्क खड़ा कर लिया था जो भी सिक्के और शिलालेख मिलते थे उनके बारे में जेम्स प्रिंसेप को सबसे पहले खबर लगती थी फिर फाइनली आता है साल 1837 जब उनके हाथ एक बड़ी खबर लगती है इस साल कैप्टन एडवर्ड स्मिथ नाम के एक मिलिट्री इंजीनियर ने उन्हें सांची के स्तूप के बारे में बताया इस अधिकारी ने प्रिंसेप को शिलालेखों के साथ-साथ स्तूप के चारों ओर पत्थर की रेलिंग पर मिले कुछ लिखे हुए टेक्स्ट के टुकड़े भेजे थे।

प्रिंसेप ने इन टुकड़ों में से एक कोड को खोजा यह कोड था दानम नाम से इसके बाद तो फिर उन्होंने एक-एक करके पूरी ब्राह्मी लिपी को ही पढ़ डाला उनकी 4 साल की मेहनत रंग लाई साल 1838 में जेम्स प्रिंसेप ने एशियाटिक सोसाइटी बंगाल को अपने रिपोर्ट दी पता चला कि यह शिलालेख देवनाम पिय पियदस्सी नाम के राजा के आदेश पर लिखे गए थे।

जिसने अपना धर्म बदल लिया था एक बार जब यह खोज हो गई तो कई कनेक्शन मिलने लगे श्रीलंका में बौद्ध धर्म के इतिहास को पढ़ने वाले इतिहासकार जॉर्ज टर्नर ने बताया कि उन्हें बौद्ध ग्रंथों से पता चला है कि पियदस्सी एक भारतीय राजा अशोक के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला टाइटल है जो चंद्रगुप्त मौर्य नाम के राजा का पोता है।

इस दौरान उन्होंने यह भी पाया दोस्तों कि अशोक का साम्राज्य बेहद विशाल था और अशोक एक शांतिप्रिय राजा था जेम्स प्रिंसेस की इस कड़ी मेहनत ने भारत के सामने एक ऐसा साम्राज्य खड़ा किया जिसके बल पर भारतीय अंग्रेजों को अपनी विरासत दिखा सकते थे हालांकि उन्होंने सिर्फ ब्राह्मी लिपि को नहीं पढ़ा बल्कि खरोष्ठी लिपि को भी उन्होंने डिकोड कर दिया था यह लिपि भारत के नॉर्थ वेस्ट में संस्कृत और प्राकृत लिखने के लिए इस्तेमाल की जाती थी।

प्रिंसेप को इस काम में हालांकि ब्राह्मी जितनी दिक्कतें नहीं हुई खरोष्ठी लिपि को पढ़ने के लिए उन्होंने पंजाब पर शासन करने वाले इंडो ग्रीक राजाओं के सिक्कों का इस्तेमाल किया इन सिक्कों पर एक तरफ राजा का नाम ग्रीक में और दूसरी तरफ खरोश में लिखा होता था प्रिंसेप को ग्रीक भाषा पर अच्छी पकड़ थी इसलिए उन्होंने इस भाषा को जल्दी ही डिकोड कर लिया इस तरह से भारत के एक प्राचीन महान साम्राज्य के बारे में पूरी दुनिया को पता चला

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