सिर कटने के बाद भी 30000 मुगलों को मारने वाला राजपूत
-: Ancient History Of India :-
इतिहास का एक ऐसा वीर योद्धा जिसने अपनी शादी की रात को बारात छोड़कर धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठा ली। एक ऐसा वीर जो सर कटने के बाद भी दुश्मनों को रणभूमि में धूल चटाता रहा। तो आखिर कौन था वो योद्धा जो उसने अपनी शादी छोड़कर तलवार उठाई और कैसे अपने प्राणों की परवाह किए बिना मंदिर और गौ माता की रक्षा की। यह कहानी है राजस्थान की उस पवित्र धरती की जहां एक 22 साल के राजपूत ने इतिहास रच दिया।
यह कहानी है छापौली ठिकाने के ठाकुर सुजान सिंह शेखावत की। जिन्होंने औरंगजेब की विशाल सेना के सामने ना केवल डटकर मुकाबला किया बल्कि अपनी वीरता से एक ऐसी मिसाल कायम की जो आज भी हर हिंदुस्तानी के दिल में गर्व जगाती है। यह बात है सन 1679 की। जब खंडेला की धरती पर खुशियों का माहौल था। छापौली ठिकाने का युवा ठाकुर सुजान सिंह शेखावतजो राजा रायसल के दूसरे पुत्र भोजराज के वंशज थे। अपनी बारात लेकर अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ विदाई की रस्में पूरी कर चुके थे।
घोड़े, ऊंट और बारातियों की चहल-पहल से माहौल गुलजार था। सुजान सिंह का चेहरा सूर्य की तरह दमक रहा था और हर बाराती के चेहरे पर खुशी की लहर थी। लेकिन जैसे कि राजस्थान की धरती की नियत रहती है। खुशियां यहां अक्सर संकट की छाया में बदल जाती है। तभी एक घुड़सवार संदेशवाहक धूल भरी सड़कों को चीरता हुआ बारात के पास पहुंचा। उसकी सांसे तेज थी और आंखों में भय के साथ-साथ एक आह्वान था। उसने ठाकुर सुजान सिंह को संबोधित करते हुए कहा हुकुम खंडेला पर संकट मंडरा रहा है।
औरंगजेब की फौज जिसका नेतृत्व सेनापति दराब खान कर रहा है। उसने खंडेला के बाहर डेरा डाल दिया है। वो मोहनदेव जी के पवित्र कृष्ण मंदिर को सुबह की पहली किरण से पहले तोड़ने की मुनाद ही कर चुके हैं। साथ ही 100 गायों को हलाल करने की भी धमकी दी है। गांव पूरी तरह से खाली हो चुका है। अब केवल आप ही इस पवित्र भूमि को बचा सकते हैं। यह सुनकर बारात में सन्नाटा छा गया। बुजुर्गों ने सलाह दी कि यह विवाह का समय है। युद्ध का नहीं बारात को आगे बढ़ना चाहिए।
लेकिन तभी संदेशवाहक की आवाज फिर से गूंजी। क्या शेखाजी की धरती पर अब कोई राजपूत बचा ही नहीं। यह बात सुजान सिंह के सीने में शूल की तरह चुबी। उनके खोल में उबाल आ गया। उन्होंने अपने घोड़े की लगामखींची। तलवार को मयान से बाहर निकाला और बोले जब तक इस धरती पर सुजान सिंह जैसा क्षत्रिय है कोई मलेच मंदिर की ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। यह सुनते ही उनके पीछे बारात के सभी राजपूत योद्धा एकजुट हो गए।
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तलवार खनकी, भाले चमके और घोड़ों की टापों ने खंडेला की ओर कूच शुरू कर दिया कि नजारा ऐसा था मानो कोई युद्ध देव अपनी सेना के साथ अधर्म के खिलाफ रणभेरी बजा रहा हो। खंडेला पहुंचते ही सुजान सिंह और उनके साथी मोहनदेव जी के मंदिर पहुंचे। वहां मंदिर के पुजारी मोती बाबा नारायण कवच का जाप कर रहे थे। सुजान सिंह ने द्वारकाधीश को प्रणाम किया और प्रण लिया। जब तक मेरे शरीर में एक बूंद खून भी बाकी रहेगी। यह मंदिर तब तक सुरक्षित रहेगा।
उस समय उनके साथ केवल 50 योद्धा थे। लेकिन उनकी वीरता की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। आसपास के गांव से राजपूत, गुर्जर और अहीर समाज के लोग मंदिर की रक्षा के लिए एकत्रित हो गए। रात बीतते-बीतते 50 की संख्या 300 से अधिक हो गई। सुजान सिंह ने अपनी छोटी सी सेना को संबोधित करते हुए कहा, हम सूर्यवंशी हैं। भगवान श्री राम के वंशज। जैसे प्रभु राम ने खरदूषण की सेना को अकेले नष्ट किया। वैसे ही हम इन मनोजों को धूल चटाएंगे।
आज हमारी माताओं के दूत की लाज रखने का दिन है और इसी के साथ हर हर महादेव के नारे हर जगह गूंजने लगे। 8 मार्च 1679 को सूर्य की पहली किरण के साथ औरंगजेब की 30 हजार की सेना मंदिर के सामने आ डटी। मुगल सेनापति दराब खान ने सुजान सिंह को ललकारा। नौजवान तुम्हारी छोटी सी सेना मेरे हजारों सिपाहियों के सामने टिक नहीं सकती। मंदिर का एक पत्थर तोड़ने दे और हम चले जाएंगे। सुजान सिंह ने भी हंसते हुए जवाब दिया, मलेच यह मंदिर भगवान कृष्ण का है और इसे छूने की हिम्मत करने वाला कोई भी जीवित नहीं बचेगा।
अपनी तलवार से बात कर और फिर क्या था। रणभूमि तलवारों की चमक और हर हर महादेव के नारों से गूंज उठी। सुशांत सिंह अपनी तलवार लिए बिजली की तरह मुगल सैनिकों पर टूट पड़े। उनकी तलवार ने दर्जनों सिपाहियों को यमलोक पहुंचा दिया और तभी एक जोरदार गर्जना के साथ सुजान सिंह ने दराब खान का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर मुगल सेना में भगदड़ मच गई। लेकिन युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ था। एक मुगल सिपाही ने छिप कर सुजान सिंह पर वारकिया और उनकी गर्दन पर शमशीर जला दी।
उनका सिर धड़ से अलग हो गया। लेकिन जो हुआ वो इतिहास के लिए एक चमत्कार बन गया। सुजान सिंह का धड़ बिना सिर के घोड़े पर सवार होकर तलवार चलाता रहा। उनकी तलवार की रफ्तार में कोई भी कमी नहीं आई। मुगल सैनिक अलौकिक दृश्य देखकर डर के मारे भाग खड़े हुए। क्योंकि उस समय सुजान सिंह का रूप ऐसा लग रहा था मानो स्वयं भगवान महादेव सुजान सिंह के शरीर में समा गए हो। वहीं दूसरी तरफ खंडेला से कुछ दूरी पर डोली में बैठी ठाकुराइन को जब अपने पति की वीरता और बलिदान की खबर मिली तो उन्होंने अपनी दासियों से कहा मुझे खंडेला ले चलो।
मैं अपने स्वामी के बिना छापोली नहीं जाऊंगी। वो खंडेला जा रही थी कि अचानक ही रास्ते में उन्हें एक अकेला घुड़सवार दिखा जिसके हाथ में खून से सनी तलवार थी। ठकुराइन ने रथ रुकवाया और चीख पड़ी। यह मेरे स्वामी है। लेकिन जब उनकी नजर उस धड़ पर पड़ी जिसके ऊपर सिर नहीं था। उनका मन सहम गया। लेकिन उसके बावजूद भी ठाकुर ने मेहंदी लगे हाथों से उनके घोड़े की लगाम पकड़ी और बोली स्वामी आपने धर्म की रक्षा की है और मुझे अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा करनी होगी।
इसीलिए आपके बिना मैं भी इस संसार में नहीं रहूंगी। और उसी समय ठगुराईन ने सुजान सिंह के साथ ही सती होने का प्रण लिया और अपने पति के साथ अपनी जीवन लीला को समाप्त किया। उनकी इस वीरता और समर्पण ने राजस्थान की धरती को पवित्र कर दिया। ठाकुर सुजान सिंह शेखावत यह नाम याद रखिएगा। शेखावत वंश का एक गौरवशाली योद्धा जिन्होंने 8 मार्च 1679 को खंडेला के जग मंदिर युद्ध में औरंगजेब की सेना को परास्त किया।
उनकी इस वीरता ने शेखावत राजपूतों के शौर्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। शेखावत जो कछवाहा वंश की एक शाखा है। राजस्थान के इतिहास में अपनी वीरता और बलिदान के लिए आज भी जाने जाते हैं। सुजान सिंह के इस बलिदान ने ना केवल खंडेला के मंदिर को बचाया था बल्कि हमें यह दिखाया कि धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए राजपूत कितने समर्पित थे। उनकी कहानी आज भी शेखावाटी क्षेत्र के लोक लोकगीतों और कथाओं में गूंजती है।
आज भी खंडेला शहर के उत्तर में ठाकुर सुजान सिंह की छतरी खड़ी है जो उनकी वीरता की मुंह गवाही देती है। पास ही उनकी पत्नी सती मां ठाकुरसा की छतरी भी है जो उनके प्रेम औरबलिदान की कहानी को बयां करती है। यह गाथा हमें सिखाती है कि सच्चा योद्धा वही है जो अपने धर्म, अपनी मिट्टी और अपने सम्मान के लिए सब कुछ न्योछावर कर दे। ठाकुर सुजान सिंह की यह कहानी राजस्थान के इतिहास में एक स्वर्णिम पन्ना है।
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