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-: 7 Chiranjeevi :-
सात ऐसे अद्भुत योद्धा जिन्हें मृत्यु कभी छू भी नहीं सकती आखिर कौन है ये चिरंजीवी इनके चिरंजीवी होने के पीछे कौन सा रहस्य है क्या वह अभी भी जिंदा हैं और आखिर कहां रहते हैं यह सात चिरंजीवी
भगवान परशुराम
भगवान परशुराम श्री विष्णु के एक अवतार के रूप में माने जाते हैं उनका जन्म ऋषि जमदग्नी और उनकी पत्नी रेणुका के घर हुआ था परशुराम नाम का अर्थ है परशु यानी कुल्हाड़ी धारण करने वाले राम वे जन्म से ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने क्षत्रियों के विरुद्ध युद्ध किया था जब उनके पिता ऋषि जमदग्नि का अपमान हुआ तो परशुराम ने प्रण लिया कि वे अत्याचारी क्षत्रियों का संघार करेंगे।
अपने इस संकल्प को पूरा करते हुए उन्होंने 21 बार इस धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था उन्होंने अपने जीवन को अन्याय और अराजकता का अंत करने के लिए समर्पित किया था जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया था ऐसा माना जाता है कि परशुराम आज भी धरती पर जीवित है।
अश्वथामा
अश्वथामा का नाम हिंदू पौराणिक कथाओं में एक रहस्यमय योद्धा के रूप में आता है महाभारत के प्रमुख योद्धाओं में से एक अश्वथामा को अपनी अपार शक्ति शौर्य और ज्ञान के लिए जाना जाता है लेकिन उनकी कहानी केवल एक महान योद्धा की नहीं है यह कहानी है अमरता श्राप और अनंत पीड़ा की अश्वथामा महाभारत के महान गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे कौरव और पांडवों के साथ-साथ गुरु द्रोण ने अपने पुत्र अश्वथामा को सभी अस्त्रों का ज्ञान दिया।
द्रोण ने अश्वथामा को नारायणास्त्र का भी ज्ञान दिया था। जिसका प्रयोग उन्होंने अपने सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन को भी नहीं सिखाया था उनके माथे पर एक दिव्य मणि थी जो उन्हें अद्वितीय शक्ति और रोगों से रक्षा प्रदान करती थी अश्वथामा को भगवान शिव का भक्त माना जाता है और उन्होंने कठोर तप करके शिव जी का आशीर्वाद पाया जिससे उनकी ताकत और बढ़ गई कुरुक्षेत्र के युद्ध में वे कौरवों के पक्ष में लड़े और उनकी वीरता और शक्ति युद्ध के दौरान कई बार सामने आई।
कुरुक्षेत्र में जब पांडवों ने छल से द्रोणाचार्य का वध कर दिया तब अश्वथामा में प्रतिशोध की आग भड़क उठी पांडवों का नाश करने के लिए उन्होंने नारायणास्त्र का प्रयोग किया जिसे किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता था जब अश्वथामा ने इस अस्त्र का प्रयोग किया तो कुरुक्षेत्र में पांडवों की सेना में हाहाकार मच गया नारायणास्त्र भगवान विष्णु का दिव्य अस्त्र था इस अस्त्र के सामने जो आता था वह भस्म हो जाता था।
इस अस्त्र को काटने की जितनी कोशिश की की जाती थी यह अस्त्र उतना ही तीव्र हो जाता था नारायणास्त्र को रोकने का एकमात्र तरीका था कि उसके सामने आत्म समर्पण कर दिया जाए यानी कोई हथियार ना उठाए और शांत हो जाए अश्वथामा के नारायणास्त्र से बचने के लिए श्री कृष्ण ने पांडवों को सलाह दी कि वे और उनकी सेना सभी हथियार छोड़कर शांत खड़े हो जाए और अस्त्र के सामने आत्म समर्पण करें।
श्री कृष्ण के कहे अनुसार जिन्होंने हथियार छोड़ दिए और शांत खड़े हो गए वे सुरक्षित रहे लेकिन जो योद्धा डर और गुस्से में आकर नारायणास्त्र का सामना करने लगे वे अस्त्र की तीव्र अग्नि में जल गए इस तरह श्री कृष्ण की सूझबूझ और सलाह से पांडवों और उनकी सेना ने नारायणास्त्र के प्रचंड प्रभाव से बचने में सफलता पाई युद्ध के अंतिम दिन दुर्योधन के मृत्यु के बाद अश्वथामा ने पांडवों से बदला लेने की ठानी रात के समय अश्वथामा ने पांडवों के शिविर में घुसकर पांडवों के सभी पुत्रों का वध कर दिया।
यह कार्य धर्म के विपरीत था क्योंकि उसने निहत सोए हुए योद्धाओं पर वार करके उनका वध किया इसके बाद पांडवों पर उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया उस ब्रह्मास्त्र को काटने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ा अगर दोनों ब्रह्मास्त्र आपस में टकराता तो इससे पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता इसलिए भगवान श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने अपने चलाए हुए ब्रह्म को वापस ले लिया अश्वथामा ब्रह्मास्त्र चलाना तो जानते थे लेकिन उन्हें इसको वापस लेना नहीं आता था इसीलिए अश्वथामा ने तब उस अस्त्र को अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर भेज दिया।
वह पांडवों के वंश का विनाश करना चाहता था भगवान श्री कृष्ण ने जब देखा कि ब्रह्मास्त्र का प्रभाव उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ने वाला है तो उन्होंने अपने दिव्य शक्तियों से उस बच्चे की रक्षा की श्री कृष्ण ने बालक को जीवन दान दिया और अश्वथामा को श्राप दिया कि वह युगों युगों तक भटकता रहेगा उसे ना तो मृत्यु मिलेगी और ना ही उसकी पीड़ा समाप्त होगी उनके माथे की मणि को भी श्री कृष्ण ने निकाल लिया इस श्राप के कारण ही अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं लोगों का मानना है कि वे हिमालय के घने जंगलों वनों और गुफाओं में निवास करते हैं।
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उनके बारे में कई कहानियां सुनी जाती हैं जिनमें दावा किया गया है कि लोगों ने अश्वथामा को देखा है कुछ लोग मानते हैं कि वे मध्य प्रदेश के जंगलों में या फिर उत्तराखंड के हिमालय क्षेत्र में विचरण करते हैं कई साधु और तपस्वी ने अश्वथामा को गंगा के किनारे किसी सुनसान जगहों पर देखा है कहा जाता है कि उनकी पीड़ा और घाव अब भी वैसे ही है जैसे उन्हें श्री कृष्ण से श्राप मिला था जो साधु हिमालय में तपस्या करते हैं।
उन्होंने भी एक लंबे बलशाली व्यक्ति को देखा है जिसका शरीर घावों से भरा हुआ है और जिससे दुर्गंध आती है जब उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा कि वह कौन है तो उसने खुद को अश्वथामा बताया और बताया कि वह अपने पापों के कारण श्रापित होकर भटक रहा है।
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के असीरगढ़ किले में स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर में अश्वथामा आज भी दर्शन देने आते हैं कहा जाता है कि वह हर सुबह इस मंदिर में पूजा करने आते हैं और भगवान शिव को फूल चढ़ाते इस मंदिर के पुजारियों का कहना है कि कई बार लोगों ने सुबह-सुबह मंदिर में फूल और ताजे जल के चढ़ावे देखे हैं जबकि रात में वहां कोई नहीं जाता
कृपाचार्य
कृपाचार्य को हिंदू धर्म के साथ है उनके पिता का नाम शरद्वान और माता का नाम जनपदी था उनका जन्म एक विशेष परिस्थिति में हुआ था जब शरद्वान ऋषि ग्रहण तपस्या कर रहे थे तब इन्द्रदेव ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए एक अप्सरा को भेजा इस कारन शरद्वान की तपस्या भंग हुई और उनके धनुष से दो संताने प्रकट हुई एक लड़का और एक लड़की लड़के का नाम कृप और लड़की का नाम कृपी रखा गया।
कृपाचार्य को हस्तिनापुर के राजा शांतनु ने अपनाया और उनका लालन पालन राजकुमारों की तरह हुआ कृपाचार्य एक महान गुरु और आचार्य थे जिन्होंने ना केवल युद्ध कला बल्कि धर्म और नीति की भी शिक्षा दी वे पांडवों और कौरवों दोनों के गुरु रहे महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य ने कौरवों का साथ दिया कौरवों के पक्ष में होने के बावजूद उन्होंने हमेशा धर्म का पालन किया।
जिससे संतुष्ट होकर भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें अमृता का वरदान दिया था कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद जब कौरवों की सेना पूरी तरह से नष्ट हो गई तब कृपाचार्य कुछ गिने चुने बचे हुए योद्धाओं में से थे चिरंजीवी होने के कारण वे आज भी इस धरती पर मौजूद हैं पुराणों के अनुसार कृपाचार्य आज भी ऋषियों के बीच रहते हैं और धर्म और शिक्षा का प्रचार करते हैं
महर्षि वेदव्यास
महर्षि वेदव्यास भारतीय पौराणिक कथाओं के महान ऋषियों में से एक हैं उनका जन्म द्वापर युग में हुआ था और वे ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र के रूप में जाने जाते हैं वेदव्यास ने वेदों को चार भागों में विभाजित किया जिससे वेदों का अध्ययन और अधिक सरल हो गया इसके अलावा उन्होंने महाभारत की रचना की उनके ज्ञान और साधना से प्रसन्न होकर उनके पिता ऋषि पराशर ने उन्हें अमर होने का वरदान दिया था इसके अलावा वह अपने दिव्य दृष्टि से भूत वर्तमान और भविष्य को देखने में सक्षम थे।
राजा बली
असुर राज बली महर्षि प्रहलाद के वंशज थे और वे एक धर्म प्रिय और दानी राजा थे अपने पराक्रम और भक्ति के बल पर उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी और इंद्र लोक भी जीत लिया था इससे इंद्र और अन्य देवता बहुत चिंतित हो गए और उन्होंने भगवान विष्णु से सहायता मांगी भगवान विष्णु ने देवताओं की रक्षा के लिए वामन अवतार लिया वे एक बौने ब्राह्मण का रूप धारण कर बलि के यज्ञ स्थल पर पहुंचे जहा बलि ने उनका स्वागत किया।
वामन भगवान ने बलि से केवल तीन पग भूमि का दान मांगा बलि ने विनम्रता से इसे स्वीकार कर लिया लेकिन उसके गुरु शुक्राचार्य ने चेतावनी दी कि यह साधारण ब्राह्मण नहीं बल्कि स्वयं विष्णु है जो बलि की शक्ति और साम्राज्य को समाप्त करने के लिए आए हैं बलि ने अपने गुरु की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया और वचन निभाने का संकल्प लिया जब बलि ने वामन को तीन पग भूमि दान कर दिया तब भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर लिया।
उन्होंने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी को नाप लिया दूसरे पग में स्वर्ग लोक को नाप लिया तीसरे पग के लिए जब बलि के पास कुछ भी नहीं बचा तो बलि ने अपने आप को भगवान के सामने समर्पित कर दिया और भगवान से कहा कि वे अपना तीसरा पग उनके सिर पर रख ले बलि की इस त्याग और वचन पालन से भगवान विष्णु बहुत ही प्रसन्न हुए उन्होंने बलि को आशीर्वाद दिया और उन्हें पाता लोक का राजा बना दिया साथ ही उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान भी दिया
विभीषण
विभीषण रावण के छोटे भाई थे लेकिन उन्होंने अपने भाई के अन्याय के खिलाफ खड़े होकर सच्चाई का मार्ग चुना जब रावण ने सीता जी का अपहरण किया तब विभीषण ने उसे समझाने की कोशिश की लेकिन रावण ने उनकी बात नहीं मानी विभीषण ने यह समझा कि रावण का रास्ता गलत है और उन्होंने राम जी का साथ देने का निर्णय लिया उनकी भक्ति और सत्य के प्रति निष्ठा ने राम जी का विश्वास जीत लिया।
विभीषण ने राम जी को लंका की कमजोरियों और रावण की योजनाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी जिससे श्रीराम को युद्ध में जीत हासिल करने में मदद मिली जब युद्ध खत्म हुआ और रावण का वध हुआ तब भगवान राम ने विभीषण की निष्ठा और भक्ति को देखकर उन्हें लंका का नया राजा नियुक्त किया इसके साथ ही राम जी ने विभीषण को अमरत्व का वरदान दिया जिससे वे चिरंजीवी बन गए
हनुमान जी
हनुमान जी को भगवान शिव का अवतार माना जाता है व इतने शक्तिशाली थे कि वह अकेले ही रामायण का युद्ध समाप्त कर सकते थे ना जाने कितने शक्तिशाली राक्षसों को उन्होंने अकेले ही मौत के घाट उतार दिया था रामायण के युद्ध में हनुमान जी ने सीता माता की खोज कर उन्हें भगवान राम का संदेश पहुंचाया था उन्होंने लंका में आग लगाकर रावण के घमंड को चूर चूर कर दिया था लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर उन्होंने ही संजीवनी बूटी लाया था जब राम भक्त हनुमान जी ने अशोक वाटिका में माता सीता को श्री राम का संदेश दिया था।
तब माता सीता ने उनकी भक्ति और साहस के कारण उन्हें अमर होने का वरदान दिया था इसके बाद जब भगवान राम का अपने धाम बैकुंठ जाने का समय हुआ तो हनुमान जी ने उनसे कहा प्रभु आप मुझे भी अपने साथ ले चलिए आपके बिना मैं यहां क्या करूंगा तब भगवान राम ने हनुमान जी से कहा हे हनुमान तुम्हें कलयुग तक धरती पर रहना है एक समय आएगा जब पाप अपने चरम पर होगा और तब तुम्हें अपने भक्तों की रक्षा करने की आवश्यकता होगी अपने आराध्य के वचन को कैसे ठुकरा सकते थे।
बजरंग बली उन्होंने कहा प्रभु मैं आपको वचन देता हूं कि मैं कलयुग तक धरती पर रहूंगा जहां भी आपके नाम का स्मरण होगा वहां मैं तुरंत उपस्थित हो जाऊंगा आपकी अयोध्या मेरी प्राण होगी और आपके भक्तों की रक्षा मेरा परम कर्तव्य होगा कहते हैं कि वे हिमालय की ऊंचाइयों पर स्थित गंध मादन पर्वत पर निवास करते हैं।
लेकिन जहां-जहां राम की महिमा गाई जाती है वहां वे शीघ्र ही अदृश्य रूप में प्रकट होकर भक्तों की सहायता करते हैं कलयुग में जब अधर्म अपनी चर्म पर होगा तब धर्म की स्थापना के लिए भगवान विष्णु कल्कि का अवतार लेकर इस धरती पर आएंगे तब यह सात चिरंजीवी कली पुरुष को परास्त करने में भगवान कल्की की सहायता करेंगे।
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